नई दिल्ली: नेपाल में ट्वीटर पर #gohomeindianmedia ट्रेंड तो कर ही रहा था और उसकी प्रतिक्रिया में भारत में भी ट्रेंड करने लगा है। मुझे इसकी उम्मीद बिल्कुल नहीं थी मगर कुछ तो था जो असहज कर रहा था। टीवी कम देखने की आदत के कारण मीडिया के कवरेज पर टिप्पणी करना तो ठीक नहीं रहेगा, लेकिन जितना भी देखा उससे यही लगा कि कई ख़बरों में सूचना देने की जगह प्रोपेगैंडा ज्यादा हो रहा है। ऐसा लग रहा था कि भूकंप भारत में आया है और वहां जो कुछ हो रहा है वो सिर्फ भारत ही कर रहा है। कई लोग यह सवाल करते थक गए कि भारत में जहां आया है वहां भारत नहीं है। उन जगहों की उन मंत्रियों के हैंडल पर फोटो ट्वीट नहीं है जो नेपाल से लौटने वाले हर जहाज़ की तस्वीर को रीट्विट कर रहे थे। फिर भी ट्वीटर के इस ट्रेंड को लेकर उत्साहित होने से पहले वही गलती नहीं करनी चाहिए जो मीडिया के कुछ हिस्से से हो गई है।
#gohomeindianmedia के संदर्भ में कहा जा रहा है कि नेपाल में कुछ लोग भारतीय पत्रकारों की रिपोर्टिंग से नाराज़ हैं। टाइम्स ऑफ इंडिया के जग सुरैया और अजित निनान ने एक कार्टून भी बनाया जिसमें प्रधानमंत्री मोदी सुपरमैन की मुद्रा में खड़े हैं और उनके पीछे कई देशों से लौटे जहाज़ हैं। कार्टून में कहा गया है कि क्या आपको नहीं लगता कि हर मदद की तस्वीर देना कुछ ज्यादा नहीं हो रहा है। गीतकार और लेखक नीलेश मिसरा ने भी लिखा कि यह कुछ ज्यादा हो रहा है। भारत का प्रयास निश्चित रूप से सराहनीय है मगर उसका रीयल टाइम महिमामंडन ठीक नहीं है। तो मीडिया को लेकर आलोचना हमारे यहां भी हो ही रही थी।
एक मई को मैंने इसी जगह पर एक लेख लिखा था जिसका शीर्षक था ‘काम कम फोटो ज्यादा’। उस लेख का संदर्भ हमारी राजनीति के फोटोग्रस्त हो जाना था लेकिन उसमें नेपाल भूकंप के संदर्भ में सूचनाओं की सीमाओं का भी ज़िक्र था। इन सबके ज़रिये समझने का प्रयास था कि कैसे हमारी डेमोक्रेसी कोरियोक्रेसी में बदलती जा रही है। सरकारी प्रवक्ता दिन रात इसी प्रकार की तस्वीरें ट्वीट कर रहे थे जैसे वहां मदद का काम सिर्फ भारत सरकार कर रही है। वायुसेना के जहाज़ों से चढ़ते-उतरे सामानों की तस्वीरें लगातार ट्वीट की जा रही थीं। पूरी त्रासदी को मदद के लिए पहुंचाए जा रहे रसद की गिनती में बदल दिया गया। कितनों को बचाया गया और कितने चक्कर जहाज़ ने लगाए ये सब ट्वीट हो रहा था।
एक मई को ही काठमांडू से लौटे मनीष कुमार ने NDTV.in ब्लाग में लिखा कि कैसे नेपाल सरकार के भीतर असहजता परस रही है। भारत सरकार और सेना की संवेदना को मीडिया और सरकारी प्रवक्ताओं ने पूरी तरह से विज्ञापन में बदल दिया। मनीष कुमार के लेख का एक अंश यहां पेश कर रहा हूं।
“दरअसल, भूकंप शनिवार को आया और रविवार सुबह से इंडियन एयर फोर्स ने लोगों को निकलना शुरू कर दिया। शुरू में बीजेपी नेता एमजे अकबर और बाबा रामदेव जैसे लोगों को प्राथमिकता दी गई, लेकिन मंगलवार शाम तक त्रिभुवन एयरपोर्ट पर भारतीय सेना के जहाजों और सर्विस प्लानों के कारण वहां की व्यवस्था अस्त-व्यस्त रही, जिसके कारण नेपाली सेना का बचाव कार्य न केवल प्रभावित हुआ, बल्कि कई देशों के राहत से भरे सामान भी नहीं पहुंच पाए। काठमांडू में होने वाली बैठक में भारतीय अधिकारियों को हर देश के प्रतिनिधि इस बात का अहसास कराने से नहीं भूलते कि अपने लोगों को निकालने की जल्दी में हम लोगों ने आवश्यक राहत सामग्री, जो ज्यादा जरूरी थी, उसमें विलंब कर दिया।''
शायद भारत और मीडिया को भारत में बनने वाली छवियों की ज्यादा चिन्ता थी। भूकंप की सारी ख़बरें हमारे प्रधानमंत्री को केंद्र में रखकर की जाने लगी। इससे आगे अगर आपने भारत में रहकर या भारतीय चैनलों के ज़रिये नेपाल भूकंप का कवरेज़ देखा होगा तो यही लगेगा कि भारत ने ये किया भारत ने वो किया। आपकी समझ का दायरा सीमित हुआ होगा क्योंकि आप बहुत कम जान सके कि भारत के अलावा दूसरों ने वहां क्या क्या किया। इस होड़ का नतीजा यह है कि मेरे इनबाक्स में कनाडा दूतावास से मेल आया है कि कनाडा ने नेपाल के लिए अपनी मदद राशि बढ़ा दी है। कनाडा वाले भारतीय मीडिया को क्यों बता रहे हैं।
भूकंप पर प्राइम टाइम के दौरान जब शोध कर रहा था तब देखा चीनी मीडिया सीसीटीवी ने भी अपने लेखों में भारत के प्रयास का ज़िक्र किया है। सीसीटीवी चैनल की एंकर ने अपनी पहली खबर में भारत के प्रयास के बारे में बताया, फिर चीन के प्रयास की खबर थी। भारत की सराहना भी थी। प्राइम टाइम में मैंने दिखाया भी था कि कैसे अमरीका, पाकिस्तान, इज़राइल, इंग्लैंड, आस्ट्रेलिया, जापान वगैरह कई देश नेपाल में राहत और बचाव कार्य संचालित कर रहे हैं। कई देशों ने तो वहां पुनर्वास की योजना और बजट की भी घोषणा कर दी है।
नेपाल भूकंप को लेकर भारतीय मीडिया की ख़बरों का मूल्यांकन तो होना ही चाहिए। मीडिया में सिर्फ टीवी नहीं आता है। अखबार भी आते हैं। लेकिन टीवी के सारे पत्रकारों ने ख़राब रिपोर्टिंग की, मैं इससे सहमत नहीं हूं। इसी संदर्भ में मूल्यांकन हमारी राजनीति का भी होना चाहिए कि किस तरह से मदद के प्रयासों का राजनीतिकरण किया गया और पूरी दुनिया में भारत की छवि या किसी नई धमक के आग़ाज़ के रूप में प्रचारित किया गया। एक किस्म की होड़ शुरू हो गई, जबकि हमारी संस्कृति यही कहती है कि सेवा परम धर्म तो है मगर परम सेवा वो है जो निस्वार्थ है। मदद करना चाहिए पर गांव-गांव जाकर गाया नहीं जाता है। इससे जो मदद लेता है वही सबसे पहले नाराज़ हो जाता है।
लेकिन नेपाल में ट्वीटर पर भारतीय मीडिया वापस जाओ को लेकर जो ट्रेंड हो रहा है उसे लेकर मीडिया और सरकार की निंदा करने के जोश का शिकार नहीं हो जाना चाहिए। मैंने सीसीटीवी का उदाहरण दिया लेकिन क्या हम जानते हैं कि चीनी मीडिया ने नेपाल में आए भूकंप को कैसे कवर किया। शनिवार को हैदराबाद से लौटते वक्त एयर इंडिया के विमान ने चाइना डेली नाम का अखबार मिला। इस अखबार में एक पूरा पन्ना नेपाल में चीन की मदद पर था। इस रिपोर्ट में लिखा गया है कि कैसे चीनी बचाव दल 'ब्लू स्काई टीम' का नेपाली जनता स्वागत कर रही है। उन्हें चाय-पानी और भोजन करा रही है। इस रिपोर्ट में सिर्फ चीन ही चीन है। क्या हम मानें कि चीन की मीडिया वहां की सरकार का प्रोपेगैंडा कर रही है?
ज़रूर अपने सरकार और अपनी मीडिया की आलोचना करनी चाहिए, लेकिन यह मैं नहीं मानने के लिए तैयार हूं कि हमारी मीडिया या हमारे रिपोर्टरों ने वहां कोई खराब रिपोर्टिंग की। हमेशा की तरह ज़रूर कुछ कमियां रही होंगी। लेकिन यह मान लेना कि सारे रिपोर्टर सरकारी प्रोपेगैंडा के तहत ख़बरें खोज रहे थे, उनकी ईमानदारी के साथ अन्याय होगा। दुखद तो है कि हमारी मीडिया को लेकर इस तरह से ट्रेंड कर रहा है लेकिन जल्दी में हम यह न मान लें कि जो ट्विटर पर ट्रेंड कर रहा है वही अंतिम सत्य है। हम सब जानते हैं कि ट्विटर पर ट्रेंड कराया भी जाता है। जो भी है अगर यह ट्रेंड नेपाली जनता की भावना का प्रतिनिधित्व करता है तो भारत और उसकी मीडिया को चिन्ता भी करनी चाहिए। एक मूल्यांकन यह भी होना चाहिए कि भारत और अन्य देशों ने नेपाल में किस तरह का काम किया है। किसने पहले किया, इस तरह के सवाल दसवीं कक्षा के होते हैं जैसे पहली महिला आईपीएस कौन है। एक परिपक्व लोकतंत्र को यह जानना चाहिए कि किसने कैसा और कितना काम किया। फिलहाल हम इस जगहसाई से कुछ सीख सकते हैं।
#gohomeindianmedia के संदर्भ में कहा जा रहा है कि नेपाल में कुछ लोग भारतीय पत्रकारों की रिपोर्टिंग से नाराज़ हैं। टाइम्स ऑफ इंडिया के जग सुरैया और अजित निनान ने एक कार्टून भी बनाया जिसमें प्रधानमंत्री मोदी सुपरमैन की मुद्रा में खड़े हैं और उनके पीछे कई देशों से लौटे जहाज़ हैं। कार्टून में कहा गया है कि क्या आपको नहीं लगता कि हर मदद की तस्वीर देना कुछ ज्यादा नहीं हो रहा है। गीतकार और लेखक नीलेश मिसरा ने भी लिखा कि यह कुछ ज्यादा हो रहा है। भारत का प्रयास निश्चित रूप से सराहनीय है मगर उसका रीयल टाइम महिमामंडन ठीक नहीं है। तो मीडिया को लेकर आलोचना हमारे यहां भी हो ही रही थी।
एक मई को मैंने इसी जगह पर एक लेख लिखा था जिसका शीर्षक था ‘काम कम फोटो ज्यादा’। उस लेख का संदर्भ हमारी राजनीति के फोटोग्रस्त हो जाना था लेकिन उसमें नेपाल भूकंप के संदर्भ में सूचनाओं की सीमाओं का भी ज़िक्र था। इन सबके ज़रिये समझने का प्रयास था कि कैसे हमारी डेमोक्रेसी कोरियोक्रेसी में बदलती जा रही है। सरकारी प्रवक्ता दिन रात इसी प्रकार की तस्वीरें ट्वीट कर रहे थे जैसे वहां मदद का काम सिर्फ भारत सरकार कर रही है। वायुसेना के जहाज़ों से चढ़ते-उतरे सामानों की तस्वीरें लगातार ट्वीट की जा रही थीं। पूरी त्रासदी को मदद के लिए पहुंचाए जा रहे रसद की गिनती में बदल दिया गया। कितनों को बचाया गया और कितने चक्कर जहाज़ ने लगाए ये सब ट्वीट हो रहा था।
एक मई को ही काठमांडू से लौटे मनीष कुमार ने NDTV.in ब्लाग में लिखा कि कैसे नेपाल सरकार के भीतर असहजता परस रही है। भारत सरकार और सेना की संवेदना को मीडिया और सरकारी प्रवक्ताओं ने पूरी तरह से विज्ञापन में बदल दिया। मनीष कुमार के लेख का एक अंश यहां पेश कर रहा हूं।
“दरअसल, भूकंप शनिवार को आया और रविवार सुबह से इंडियन एयर फोर्स ने लोगों को निकलना शुरू कर दिया। शुरू में बीजेपी नेता एमजे अकबर और बाबा रामदेव जैसे लोगों को प्राथमिकता दी गई, लेकिन मंगलवार शाम तक त्रिभुवन एयरपोर्ट पर भारतीय सेना के जहाजों और सर्विस प्लानों के कारण वहां की व्यवस्था अस्त-व्यस्त रही, जिसके कारण नेपाली सेना का बचाव कार्य न केवल प्रभावित हुआ, बल्कि कई देशों के राहत से भरे सामान भी नहीं पहुंच पाए। काठमांडू में होने वाली बैठक में भारतीय अधिकारियों को हर देश के प्रतिनिधि इस बात का अहसास कराने से नहीं भूलते कि अपने लोगों को निकालने की जल्दी में हम लोगों ने आवश्यक राहत सामग्री, जो ज्यादा जरूरी थी, उसमें विलंब कर दिया।''
शायद भारत और मीडिया को भारत में बनने वाली छवियों की ज्यादा चिन्ता थी। भूकंप की सारी ख़बरें हमारे प्रधानमंत्री को केंद्र में रखकर की जाने लगी। इससे आगे अगर आपने भारत में रहकर या भारतीय चैनलों के ज़रिये नेपाल भूकंप का कवरेज़ देखा होगा तो यही लगेगा कि भारत ने ये किया भारत ने वो किया। आपकी समझ का दायरा सीमित हुआ होगा क्योंकि आप बहुत कम जान सके कि भारत के अलावा दूसरों ने वहां क्या क्या किया। इस होड़ का नतीजा यह है कि मेरे इनबाक्स में कनाडा दूतावास से मेल आया है कि कनाडा ने नेपाल के लिए अपनी मदद राशि बढ़ा दी है। कनाडा वाले भारतीय मीडिया को क्यों बता रहे हैं।
भूकंप पर प्राइम टाइम के दौरान जब शोध कर रहा था तब देखा चीनी मीडिया सीसीटीवी ने भी अपने लेखों में भारत के प्रयास का ज़िक्र किया है। सीसीटीवी चैनल की एंकर ने अपनी पहली खबर में भारत के प्रयास के बारे में बताया, फिर चीन के प्रयास की खबर थी। भारत की सराहना भी थी। प्राइम टाइम में मैंने दिखाया भी था कि कैसे अमरीका, पाकिस्तान, इज़राइल, इंग्लैंड, आस्ट्रेलिया, जापान वगैरह कई देश नेपाल में राहत और बचाव कार्य संचालित कर रहे हैं। कई देशों ने तो वहां पुनर्वास की योजना और बजट की भी घोषणा कर दी है।
नेपाल भूकंप को लेकर भारतीय मीडिया की ख़बरों का मूल्यांकन तो होना ही चाहिए। मीडिया में सिर्फ टीवी नहीं आता है। अखबार भी आते हैं। लेकिन टीवी के सारे पत्रकारों ने ख़राब रिपोर्टिंग की, मैं इससे सहमत नहीं हूं। इसी संदर्भ में मूल्यांकन हमारी राजनीति का भी होना चाहिए कि किस तरह से मदद के प्रयासों का राजनीतिकरण किया गया और पूरी दुनिया में भारत की छवि या किसी नई धमक के आग़ाज़ के रूप में प्रचारित किया गया। एक किस्म की होड़ शुरू हो गई, जबकि हमारी संस्कृति यही कहती है कि सेवा परम धर्म तो है मगर परम सेवा वो है जो निस्वार्थ है। मदद करना चाहिए पर गांव-गांव जाकर गाया नहीं जाता है। इससे जो मदद लेता है वही सबसे पहले नाराज़ हो जाता है।
लेकिन नेपाल में ट्वीटर पर भारतीय मीडिया वापस जाओ को लेकर जो ट्रेंड हो रहा है उसे लेकर मीडिया और सरकार की निंदा करने के जोश का शिकार नहीं हो जाना चाहिए। मैंने सीसीटीवी का उदाहरण दिया लेकिन क्या हम जानते हैं कि चीनी मीडिया ने नेपाल में आए भूकंप को कैसे कवर किया। शनिवार को हैदराबाद से लौटते वक्त एयर इंडिया के विमान ने चाइना डेली नाम का अखबार मिला। इस अखबार में एक पूरा पन्ना नेपाल में चीन की मदद पर था। इस रिपोर्ट में लिखा गया है कि कैसे चीनी बचाव दल 'ब्लू स्काई टीम' का नेपाली जनता स्वागत कर रही है। उन्हें चाय-पानी और भोजन करा रही है। इस रिपोर्ट में सिर्फ चीन ही चीन है। क्या हम मानें कि चीन की मीडिया वहां की सरकार का प्रोपेगैंडा कर रही है?
ज़रूर अपने सरकार और अपनी मीडिया की आलोचना करनी चाहिए, लेकिन यह मैं नहीं मानने के लिए तैयार हूं कि हमारी मीडिया या हमारे रिपोर्टरों ने वहां कोई खराब रिपोर्टिंग की। हमेशा की तरह ज़रूर कुछ कमियां रही होंगी। लेकिन यह मान लेना कि सारे रिपोर्टर सरकारी प्रोपेगैंडा के तहत ख़बरें खोज रहे थे, उनकी ईमानदारी के साथ अन्याय होगा। दुखद तो है कि हमारी मीडिया को लेकर इस तरह से ट्रेंड कर रहा है लेकिन जल्दी में हम यह न मान लें कि जो ट्विटर पर ट्रेंड कर रहा है वही अंतिम सत्य है। हम सब जानते हैं कि ट्विटर पर ट्रेंड कराया भी जाता है। जो भी है अगर यह ट्रेंड नेपाली जनता की भावना का प्रतिनिधित्व करता है तो भारत और उसकी मीडिया को चिन्ता भी करनी चाहिए। एक मूल्यांकन यह भी होना चाहिए कि भारत और अन्य देशों ने नेपाल में किस तरह का काम किया है। किसने पहले किया, इस तरह के सवाल दसवीं कक्षा के होते हैं जैसे पहली महिला आईपीएस कौन है। एक परिपक्व लोकतंत्र को यह जानना चाहिए कि किसने कैसा और कितना काम किया। फिलहाल हम इस जगहसाई से कुछ सीख सकते हैं।
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